शनिवार, 13 अगस्त 2016

रानी लक्ष्मी बाई

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को वाराणसी में हुआ था, मराठी ब्राह्मण परिवार से संबंधित लक्ष्मीबाई का वास्तविक नाम मणिकर्णिका था, लेकिन सब उन्हें मनु के नाम से पुकारते थे। इनके पिता मोरोपंत तांबे बिठूर के पेशवा की राज सभा में काम करते थे। मनु जब चार वर्ष की थीं तभी उनकी माता का देहांत हो गया था। पेशवा ने मनु का पालन-पोषण अपने पुत्री की तरह किया। वह उसे छबीली कहते थे, मणिकर्णिका की शिक्षा घर पर ही संपन्न हुई थी। राज सभा में पिता का प्रभाव होने के कारण मनु को अन्य महिलाओं से ज्यादा खुला वातावरण मिल पाया। तात्या टोपे, जो पेशवा के पुत्र को प्रशिक्षण दिया करते थे, मनु के भी सलाहकार और प्रशिक्षक बने।

मनु ने बचपन में उनसे घुड़सवारी, निशानेबाजी, आत्मरक्षा का प्रशिक्षण ग्रहण किया था। वर्ष 1842 में झांसी की रानी बनीं। विवाह के पश्चात उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई रखा गया। वर्ष 1851 में झांसी की रानी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम दामोदर राव नावेलकर रखा गया। अंगेजी षडयंत्र के कारण मात्र चार महीने की आयु में ही दामोदर राव का निधन हो गया। कुछ समय बाद गंगाधर राव ने अपने चचेरे भाई के बेटे आनंद राव को गोद ले लिया। हालांकि गंगाधर राव पुत्र वियोग में दर्द से उबर नहीं पाए जिसके चलते 21 नवंबर, 1853 को उनका देहांत हो गया। अठारह वर्ष की आयु में लक्ष्मीबाई विधवा हो गयी थीं। उस समय अंग्रेजों की यह नीति थी कि जिस राजा का उत्तराधिकारी नहीं होगा, उसके राज्य को अंग्रेजों के अधीन कर लिया जायेगा। आनंद राव उनके दत्तक पुत्र थे, इसलिए उन्हें राजा का उत्तराधिकारी नहीं माना गया। अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को 60,000 रूपए पेंशन लेकर किला छोड़ कर जाने का आदेश दिया।

वर्ष 1857 में यह अफवाह फैल गई कि भारतीय सैनिकों को जो हथियार दिए गए हैं, उनमें गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया गया है। इस बात से भारतीय सैनिक अंग्रेजी सरकार के विरोध में आ गए और उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से देश को आजाद करवाने का प्रण ले लिया। हजारों सैनिकों ने इस प्रण को निभाते हुए अपनी जान दे दी। यह विद्रोह मेरठ से शुरू होकर बरेली और दिल्ली में भी पहुंचा। हालांकि संपूर्ण भारत से तो अंग्रेजी सरकार को नहीं हटाया जा सका लेकिन झांसी समेत कई राज्यों से अंग्रेजों को हटा दिया गया। इस विद्रोह के बाद झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने दोबारा अपने राज्य पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया और अपने राज्य को अंग्रेजों से बचाने के लिए भी हर संभव प्रयत्न किए। मार्च 1858 में सर हारोज ने लक्ष्मीबाई को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया लेकिन लक्ष्मीबाई ने अपनी झांसी को बचाने के लिए अकेले जंग का ऐलान कर दिया। लगातार तीन दिनों तक गोलीबारी होने के बावजूद अंग्रेजी सेना किले तक नहीं पहुंच पाई। जिसके परिणामस्वरूप हारोज ने पीछे से वार करने का निर्णय लिया। विश्वासघात का सहारा लेकर हारोज और उसकी सेना 3 अप्रैल को किले में दाखिल हो गई। अपने बारह वर्ष के बेटे को पीठ पर बांधकर लक्ष्मीबाई को वहां से भाबना ही पड़ा। लगातार चौबीस धंटे का सफर और 102 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद लक्ष्मीबाई कालपी पहुंची। कालपी के पेशवा ने स्थिति का आकलन कर लक्ष्मीबाई की सहायता करने का निर्णय लिया। पेशवा ने रानी को जरूरत के अनुसार अपने सेना और हथियार देने का फैसला किया। 22 मई को हारोज ने कालपी पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण का सामना झांसी की रानी ने पूरी दृढ़ता से किया। यहां तक कि ब्रिटिश सेना भी उनके आक्रमण से घबरा गई थी। लेकिन दुर्भाग्यवश 24 मई को हारोज ने कालपी पर अधिकार कर लिया। राव साहेब पेशवा, तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर जाने का फैसला लिया, लेकिन ग्वालियर के राजा अंग्रेजो के साथ थे। लक्ष्मीबाई ने युद्ध कर राजा को हरा दिया और किला पेशवा को सौंप दिया।
17 जून को हारोज ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया, लेकिन झांसी की रानी ने आत्म-समर्पण का रास्ता न चुनकर सेना का सामना करने का निश्चय किया। झांसी की रानी अपने घोड़े पर नहीं बल्कि किसी और घोड़े पर बैठकर युद्ध लड़ रही थीं। वह पुरूषों के कपड़े में थी इसलिए घायल होने के बाद उन्हें कोई पहचान नहीं पाया। उनके भरोशेमंद सहायकों द्वारा उन्हें पास के ही वैध के पास इलाज के लिए लेजाया गया और उन्हें वही पर गंगाजल पिलाया गया. रानी लक्ष्मीबाई की अंतिम इच्छा थी कि उनके शव को कोई भी अंग्रेज हाथ ना लगा पाए। 18 जून 1858 को 23 वर्ष की छोटी सी आयु में ही लक्ष्मीबाई ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। कुछ समय पश्चात उनके पिता मोरोपंत तांबे को भी अंग्रेजों द्वारा फांसी दे दी गई। लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव अपनी मां के सहायको के साथ वहां से भाग गए। हालांकि उन्हें कभी उत्तराधिकारी  नहीं मिला लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें पेंशन देने की व्यवस्था की थी। दामोदर राव इन्दौर में जाकर रहने लगे। 28 मई 1906 को 58 वर्ष की उम्र में दामोदर राव का भी निधन हो गया। उनके वंशजों के उपनाम के रूप में झांसीवाले ग्रहण किया।

रानी लक्ष्मीबाई एक वीर और साहसी महिला थीं। भले ही उनकी उम्र ज्यादा नहीं थी। लेकिन उनके निर्णय हमेंशा परिपक्व हुआ करते थे। अंतिम श्वास तक वह अंग्रेजों से लोहा लेती रही। उन्होंने स्वतंत्रता के लिए प्रयासरत लोगों के लिए एक आदर्श उदाहरण पेश किया था। हारोज ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि उन्होंने जितने भी विरोधियों का सामना किया उनमें सबसे अधिक खतरा उन्हें लक्ष्मीबाई से ही था। वह सबसे अधिक साहसी और दृढ़ निश्चयी थीं।

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